Monday, December 7, 2009
कुंवर ने बुलंद किया सियासत का झण्डा
राहुल का अलीगढ़ व एटा दौरा सियासी लोगों खलबली मचा गया। लिब्रहान कमेटी की रिपोेर्ट संसद में पेश हो चुकी है। छह दिसंबर को बाबरी एक्शन कमेटी के लोग विवादित ढांचा विध्वंस की बरसी मनाते हैं। वहीं सात दिसंबर से लिब्रहान की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा होनी थी। ऐसे में मुस्लिम नेताओं को मरहम और मुस्लिम वोटों में संेध लगाने के लिए भी राहुल ने एएमयू को चुना। शायद इसीलिए मीडिया को भी दूर ही रखा गया। उन्होंने कार्यकर्ताओं को अभी से जुट जाने और जमीनी स्तर से काम करने की सीख दी। राहुल उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपनी तैयारी की शुरुआत कर दी है। बता दें कि कल्याण सिंह एटा लोकसभा सीट से सांसद हैं और बाबरी विध्वंस के आरोपी भी हैं। इसीलिए ब्रज क्षेत्र में अलीगढ़ के बाद अन्य शहरों को न चुनकर एटा को ही चुना गया। राहुल का यह दौरा तो खत्म हो गया, लेकिन सियासत की हवा में गरमी बढ़ा गया। राहुल के दौरे में साफ संदेश था कि अब यूपी की बारी है।
-ज्ञानेन्द्र
Thursday, September 17, 2009
सोच बदलें, हिन्दी का कल्याण होगा





हिन्दी को लेकर पद्म भूषण और पद्मश्री गोपालदास नीरज जी के दिल की व्यथा
हिन्दी भारत मां की बिन्दी
जन-गण-मन कल्याणी है
ये भाषा भर नहीं
भारतीय की आंखों का पानी है।
पद्म भूषण और पद्मश्री गोपालदास नीरज जी के मुंह से अचानक ही ये शब्द निकल पड़े। उन्होंने पीड़ा जताते हुए प्रश्न किया कि हिन्दी दिवस पर ही हिन्दी को क्यों पूजा जाता है? हिन्दी को हम मातृभाषा कहते हैं, लेकिन कुर्सी पर बैठे अफसर सारा काम अंगे्रजी में ही करना पसंद करते हैं। सिर्फ हिन्दी पखवाड़ा मनाकर ही इतिश्री कर ली जाती है। उन्होंने बाॅलीवुड फिल्मों को हिन्दी के विस्तार के लिए अहम बताया और इसका उदाहरण ‘जय हो‘ गीत से दिया जो विश्वभर में चर्चित है।
हिन्दी की महत्ता और विकास न होने की मुख्य वजह वे लोगों की मानसिकता को मानते हैं। उन्होंने बताया कि उच्चवर्गी परिवारों से तुलना की होड़ में मध्यवर्गीय परिवार भाग रहे हैं। इसके पीछे सीढ़ी का काम अंग्रेजी कर रही है। इस कारण हिन्दी पिछड़ती जा रही है। हिन्दी की दुर्दशा के लिए लोगों की मानसिकता ‘सोच‘ जिम्मेदार है। जिस दिन वह बदल जाएगी, हिन्दी भी सुधर जाएगी। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि बच्चा जब पैदा होता है तो हिन्दी में ही रोता है। आ... वह उर्दू या किसी अन्य भाषा में नहीं रोता। पाक, अफगान और ईरान के बच्चे भी हिन्दी में ही रोते हैं।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा न मिलने का मलाल आज भी टीसता है। हिन्दी कवि और साहित्यकारों की दुर्दशा भी उनकी आंखों में नजर आई। उन्होंने बताया कि हैरी पाॅटर और चेतन भगत को तो पढ़ने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ गई, लेकिन हिन्दी साहित्य से लोग दूरी बनाए हुए हैं। इस कारण साहित्यकारों और कवियों की स्थिति हमेशा दयनीय ही रही। यदि एक व्यक्ति महीने में भी 100 रुपये हिन्दी पुस्तकों पर खर्च करे तो भी हिन्दी कवियों और साहित्यकारों को गरीबी नहीं झेलनी पड़ेगी। उन्होंने बताया कि वे अभी तक कवि सम्मेलन के मंचों पर पाठ करते हैं और तीन अक्टूबर को कवि सम्मेलन में भाग लेने देवरिया जा रहे हैं। स्वास्थ्य गड़बड़ होने के बावजूद इस उम्र में भी संघर्ष पर वह बोले कि सेहत से बड़ा पेट है।
अंत में वे बोल ही पड़े....
अपनी भाषा के बिना राष्ट्र न बनता राष्ट्र
रहे वहां सौराष्ट्र या बसे वहां महाराष्ट्र।।
Saturday, June 20, 2009
पिता दिवस पर मेरा समर्पण
वो जो हैं मेरे सपनों को सच करने वाले
मेरी छोटी बड़ी तकलीफों में सहारा देने वाले
मेरा हक़, मेरा गुरूर, मेरी प्रतिष्ठा, मेरी आत्मा
नहीं भुला सकता वो पापा हैं हमारे
उनके कन्धों पर बैठकर ही
ऊंचाई का अंदाजा लगाया था मैंने
अंधेरे रास्तों, कच्ची पगडंडियों पर
ऊँगली उनकी थम सहारा पाया था मैंने
कैसा होता है हीरो कहानियों का
पूछा था जब माँ से मैंने
मुस्कुरा कर उनकी आंखों का इशारा
पापा की तरफ़ पाया था मैंने॥
ज्ञानेंद्र, अलीगढ
Friday, June 19, 2009
बुढ़िया की व्यथा
ढलती उम्र में बच्चे आँख दिखाते हैं
नाजों से पाला था जिनको, न जाने
क्यूँ अब सहारा बनने से कतराते हैं
निवाला अपने मुंह का खिलाया जिनको, न जाने
क्यूँ वे आज साथ खाने से घबराते हैं
सारा दर्द मेरे हिस्से और खुशियाँ उनके, न जाने
क्यूँ वे अब भी दर्द मेरे हिस्से ही छोड़ जाते हैं
उनकी पार्टी मानती है रोशनी में और मेरी साम अँधेरी कोठरी में, न जाने
क्यूँ वे हर बार मुझे ही शामिल करना भूल जाते हैं
उम्र के साथ कमजोर हुई मेरी सोच, न जाने क्यूँ वे आज मुझे याद करने से डर जाते हैं
जीवन के आखिरी सफर में चेहरे सबके देखने की हसरत में, न जाने
क्यूँ मेरे अपने विदेश में बैठ जाते हैं
अपनी उखरती साँसों के समय साथ उनका चाहा मैंने, न जाने
क्यूँ वे काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं
उम्र भर सबको साथ लेकर चली मैं, न जाने
क्यूँ मेरी विदाई को वे गुमनामी में निपटाते हैं॥
ज्ञानेंद्र, अलीगढ
Tuesday, March 31, 2009
हमारे नेता
ऐसे है हमारे नेता
कहते है जनसभा में चिल्लाकर वोट दो हमें
वोट दो हमें
हम दिख्लायेगे रास्ता तरक्की का विकास का
( अपनी )
वोट दो हमें हम दिलाएंगे आरक्षण
( और लड़ायेंगे तुम्हें )
वोट दो हमें और संसद भेजो हमको
(हम भूल जायेंगे तुमको) ॥
ज्ञानेंद्र कुमार
हिंदुस्तान, आगरा
Sunday, March 15, 2009
प्यार के नाम
उसको दीवाना बनाने चला था मैं
देख कर इक झलक उसकी
रूह_ऐ तमन्ना कह उठी
अब इबादत करूँ किसकी
खुदा की या उस चाँद की
दीवाना कर दिया उसकी इक नज़र ने
बेकरार कर दिया उसकी उसी नज़र ने
या खुदा मुझे कोई तो रास्ता बता दे
या वो रुख से नकाब उठा दे
या तू रुख से नकाब उठा दे
मेरी इक इल्तिजा मान मेरे मौला
मुझको मेरे महबूब का दीदार करा दे
दिखती है उसकी सूरत में तेरी सूरत
कुछ ऐसा कर मेरे मौला
उसके रुख से नकाब हटा दे
यदि देना है नज़राना तुझे मेरी बंदगी का
मेरी इबादत का मेरे रोजे का
मेरे मौला कर इशारा कुछ ऐसा
या तू देख मेरी ओर
या नज़र उसकी मुझ पर कर दे
अब और किसी जन्नत का मुझे सबाब नहीं
उसके कदमों में मेरी जन्नत है
बस इक आरजू है इल्तजा है
इक बार रुख से नकाब उठ जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए।।
ज्ञानेंद्र
rastey2manzil।blogspot।com
Saturday, March 7, 2009
अबकी फागुन
ओ गोरी
पहना दे मोहें बैयन का हार
नहीं करिबे तोहसे सवाल
बात मान मोरी
अबकी फागुन खेरे होरी
ओ गोरी
अबकी फागुन भीगें संग संग
ई है हमरी पहरी होरी
भिगिये अंचला चोली तोहरी
अबकी फागुन खेरे होरी
ओ गोरी
नाचे संग संग अंगना माँ
उद्हैबे रंग तोहपे करिबे सीनाजोरी
गुलाल अबीर के संग माँ
नैनों के तोहरी दर्पण माँ करिबे ठिठोली
अबकी फागुन खेरे होरी
ओ गोरी
रस्तेय२मन्ज़िल.ब्लागस्पाट.com
Sunday, February 22, 2009
ग़ज़ल
पलकों ki सीप के मोती कहते है ढलते ढलते
तुझे भूल जाऊंगा मैं ख़ुद पे नही भरोसा
दिन रात में तुम्ही हो ख्वाबों में तुम ही बसते
सांसों में तुम बसे हो सीने में हो धड़कते
मैं हार जाऊँ सबकुछ तेरी जीत हो मुकम्मल
बस देख ले तू मुड के मर जाऊँ हँसते हँसते
सांसों में तुम बसे हो सीने में हो धड़कते
मन्दिर को मैं न मानूं मस्जिद को न jaanu
bhagwan मेरे तुम हो खुदा के तुम farishte
सांसों में तुम बसे हो सीने में हो धड़कते
आंखों में जो नशा है आंखों से ही पिया है
aa jao पास अब तुम ये कदम नही samahlte
सांसों में तुम बसे हो सीने में हो धड़कते
पलकों के सीप के मोती कहते है ढलते ढलते
Thursday, February 19, 2009
फूल
चाहे मन्दिर में माला पहनाओ
चाहे मस्जिद में चादर चढाओ
नहीं दिखता मुझमें कोई भरम
मैं फूल हूँ नहीं देखता जात और धरम
गर हो तुम्हारे घर शादी
या किसी के यहाँ मातम
चाहे खुशिओं में सजाओ
चाहे मइयत पर चढाओ
मैं फूल हूँ मुझमें है संयम
रब की चाहत मुझसे
खुशी का इजहार मुझसे
दोस्ती की फरमाइश मुझसे
दिलों का इकरार मुझसे
मैं फूल हूँ मुझमे हैं कई रंग
दिलों के खेल का हथियार हूँ मैं
रूठने मनाने का आधार हूँ मैं
न इर्ष्या न जलन शिर्फ़ सादगी है मुझमे
इसीलिए गम का भी इलाज हूँ मैं
मैं इसी में खुश हूँ मैं फूल हूँ, मैं फूल हूँ, मैं फूल हूँ॥
rastey2manzil.blogspot.com
Tuesday, February 17, 2009
तेरा चेहरा
आँख में उसकी जादू है दिल को पागल कर जाता है
मैं जहाँ चलूँ मेरे साथ चले
उसके आँचल से शाम ढले
जुल्फों में घोर अँधेरा है
मुस्काए तो चाँद खिले
है ग़ज़ल किसी शायर का वो दिल जिसको हर पल गाता है
सांवली सूरत देख के उसकी जाने क्या हो जाता है
सातों सुर घुल जाते हैं
जब कान में वो कुछ कहती है
वक्त वहीँ थम जाता है
लहरा के जो आँचल चलती है
हर अदा का मैं दीवाना हूँ हर अदा पे ये दिल मरता है
सांवली सूरत देख के उसकी जाने क्या हो जाता है
हाथों में उसका हाथ लिए
दरिया के किनारे साथ चले
उसकी आंखों में खो जायें
जब साँस में उसकी साँस मिले
अब चांदनी भी शर्माती है, हवा भी रुख को बदलती है
सांवली सूरत देख के उसकी जाने क्या हो जाता है
आँख में उसकी जादू है दिल को पागल कर जाता है
Monday, February 16, 2009
यादें
हर एक पल में हम जीतें हैं, हर एक पल मरते हैं।
ये जीना भी कोई जीना है फ़िर मरने से क्यों डरते हैं।
कितने बसंत हैं देख चुके, कितने सावन में भीग चुके।
फ़िर भी है मन में प्यास भरी और राह उसी की तकते हैं।
ये जीना भी कोई जीना है फ़िर मरने से क्यों डरते हैं।
है नींद नही इन आंखों में पर रात सुहानी लगती है।
कुछ बचा नही अब जीवन में बस याद से साँसें चलती हैं।
जिस राह से ख़ुद को अलग किया उसकी चाह क्यों करते हैं
ये जीना भी कोई जीना है फ़िर मरने से क्यों डरते हैं।
एक दिन जीवन थम जाएगा, हम दूर कहीं खो जायेंगे।
चलता रहेगा सबकुछ यूँ ही पर हम न नजर आयेंगे।
कोई याद करे न करे मुझको मेरी यादों में सब बसते हैं।
हर एक पल में हम जीते हैं हर एक पल मरते हैं।
ये जीना भी कोई जीना है फ़िर मरने से क्यों डरते हैं।
पत्रकार का एक din
ऑफिस के नाम से ही चढ़ जाता है बुखार
सुबह उठने के साथ ही शुरू हो जाता है डर
हर पन्ना पलटना, हर खबर पढ़ना
क्या लगा, कैसा छ्पा, क्या रह गया
या देख ही रहा था कि मेरा फ़ोन बज गया
कैसे हो भाई, उधर से आवाज़ आई
मै कुछ बोल पता इससे पहले उसने गलती बताई
वो फोटो कहाँ गई जिसे लगना था आज
संपादक हैं नाराज गिरने वाली है गाज
सुनकर उसकी बात मन हो गया बेचैन
आज फ़िर खो गया दिन भर का चैन
कहाँ की चाय अब कहाँ का नाश्ता
हाथ मुंह धुल पकड़ लिए ऑफिस का रास्ता
हर पल सता रहा हा नौकरी का डर
याद आ रही थी माँ याद आ रहा था घर
बड़ी मुश्किल आज उस फोटो ने डाला
अपने कंप्यूटर को मैंने शुरू से खंगाला
पेज पर ही थी कैसे नही लग पाई
माफीनामा लिखने में ही समझी अपनी भलाई
मामला निपटाया फ़िर लौटकर घर आया
दो बज चुके थे अबतक जब मुंह में गई चाय
कैसी है life कैसे कर रहे एन्जॉय।
Monday, February 9, 2009
एक पल ये प्यार का
दिल से दिल को मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
हवा में नया रंग है, फिजा में भी उमंग है
मचलता अंग अंग जैसे बजता जलतरंग है।
जश्न है ये प्रीत का, गीत है बहार का
दिल को दिल से मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
जगे हैं अरमान दिल में फ़िर से एक बार
कह दे दिल की बात जिसपे करते जानिसार
आंखों में बसा लें चेहरा अपने यार का
दिल को दिल से मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
होंठ कंपकंपा रहे, आँख डबडबा रही
उसकी नजदीकियां धड़कनें बढ़ा रही
एसा लग रहा है जैसे जाम हो खुमार का
चार दिन की जिंदगी में एक पल ये प्यार का
दिल को दिल से मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
संदीप तिवारी
हिंदुस्तान, आगरा
Friday, February 6, 2009
जब तनहा थे तो तन्हाई थी जिंदगी
अब तनहा सफर से डर लगता है
तेरी यादों से चलती हैं सांसें मेरी
ये सांसें थम न जायें डर लगता है।
मेरी आंखों में तुम, तुम्हारे सपने, तुम्हारी बातें
वो खिलखिलाते दिन वो मुस्कुराती रातें
तुम्हारा मिलना। साथ साथ चलना
वो हँसना वो रोना, न खाना न सोना
जिंदा हो तुम मैं जिंदा हूँ जब तक
कहीं मर न जाऊँ डर लगता है।
जब तनहा थे तन्हाई थी जिंदगी
अब तनहा सफर से डर लगता है
धड़कता नही अब सिसकता है दिल
हुई राहें जुदा बदल गई मंजिल
ये तो होना ही था, तुझको खोना ही था
तुझे छोड़कर तुझसे मुह मोड़कर
शर्मिंदा हूँ मैं तेरा दिल तोड़कर
जिन आंखों में थे सिर्फ़ सपने मेरे
अब नज़रें मिलाने में डर लगता है।
संदीप तिवारी, हिंदुस्तान आगरा
Wednesday, February 4, 2009
vasant aa gaya
कैसे छिपोगे
कैसे छिपापाओगे
अपने आने का संदेश
तुम्हारी चुलबुली शरारतें
इशारा कर देती हैं
तुम्हारे आगमन का
लाख छिपोगे फिर भी
गगन करेगा चुगली
भवरे, तितलियाँ और कोपलें
करेंगी तुम्हारा स्वागत
कैसे छिपोगे कैसे छिपापाओगे
रोक पाओगे
गाव की पगडंडियों से
चली सरिता को
रोक पाओगे
पीली ओध्रनी में
इठलाती हवाओं को
कैसे छिपोगे कैसे छिपापाओगे
मधुर मिलन की प्यास
जो कराएगी तुम्हारा अहसास
कैसे छिपोगे कैसे छिपापाओगे
रोक पाओगे
पत्तियों को चूमती
ओस को
मुंडेर पर बैठे
पंछियों के शोर को
जो गुनगुनायेंगे
प्रिया के संदेश को
हो जाओ सचेत
ऋतुराज आ गया
ऋतुराज आ गया ऋतुराज आ गया
वसंत छा गया
दीक्षांत तिवारी हिंदुस्तान, आगरा मीठीमिर्ची.ब्लागस्पाट.कॉम