चार दिन की जिंदगी में एक पल ये प्यार का
दिल से दिल को मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
हवा में नया रंग है, फिजा में भी उमंग है
मचलता अंग अंग जैसे बजता जलतरंग है।
जश्न है ये प्रीत का, गीत है बहार का
दिल को दिल से मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
जगे हैं अरमान दिल में फ़िर से एक बार
कह दे दिल की बात जिसपे करते जानिसार
आंखों में बसा लें चेहरा अपने यार का
दिल को दिल से मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
होंठ कंपकंपा रहे, आँख डबडबा रही
उसकी नजदीकियां धड़कनें बढ़ा रही
एसा लग रहा है जैसे जाम हो खुमार का
चार दिन की जिंदगी में एक पल ये प्यार का
दिल को दिल से मिलने दो झगडा क्यों बेकार का।
संदीप तिवारी
हिंदुस्तान, आगरा
Monday, February 9, 2009
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बहुत सुन्दर काव्य
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम
you are such a good poet
ReplyDeletei am waiting your next poem.
i hope that you won't deprese me.
आपका हिन्दी चिट्ठाकारी में हार्दिक स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteस्वागत ब्लॉग परिवार में.
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति सुंदर ...लिखते रहें
ReplyDeleteNice post u r most welcome at my blog
ReplyDeletedil se nikli hui aawaj hai
ReplyDeletegood...
sahi hai sab bekar ke jhagdon me uljhe huye hai. narayan narayan
ReplyDeletepriy bandhu "ek pal ye pyar ka "aapki kawitaa padi bahut achchhi lagi hrday prasann ho gyaa badhaai ho
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