Saturday, June 20, 2009

पिता दिवस पर मेरा समर्पण

मेरे पिता जी को समर्पित

वो जो हैं मेरे सपनों को सच करने वाले
मेरी छोटी बड़ी तकलीफों में सहारा देने वाले
मेरा हक़, मेरा गुरूर, मेरी प्रतिष्ठा, मेरी आत्मा
नहीं भुला सकता वो पापा हैं हमारे
उनके कन्धों पर बैठकर ही
ऊंचाई का अंदाजा लगाया था मैंने
अंधेरे रास्तों, कच्ची पगडंडियों पर
ऊँगली उनकी थम सहारा पाया था मैंने
कैसा होता है हीरो कहानियों का
पूछा था जब माँ से मैंने
मुस्कुरा कर उनकी आंखों का इशारा
पापा की तरफ़ पाया था मैंने॥

ज्ञानेंद्र, अलीगढ

Friday, June 19, 2009

बुढ़िया की व्यथा

परवरिश में भूल हुई क्या, न जाने
ढलती उम्र में बच्चे आँख दिखाते हैं
नाजों से पाला था जिनको, न जाने
क्यूँ अब सहारा बनने से कतराते हैं
निवाला अपने मुंह का खिलाया जिनको, न जाने
क्यूँ वे आज साथ खाने से घबराते हैं
सारा दर्द मेरे हिस्से और खुशियाँ उनके, न जाने
क्यूँ वे अब भी दर्द मेरे हिस्से ही छोड़ जाते हैं
उनकी पार्टी मानती है रोशनी में और मेरी साम अँधेरी कोठरी में, न जाने
क्यूँ वे हर बार मुझे ही शामिल करना भूल जाते हैं
उम्र के साथ कमजोर हुई मेरी सोच, न जाने क्यूँ वे आज मुझे याद करने से डर जाते हैं
जीवन के आखिरी सफर में चेहरे सबके देखने की हसरत में, न जाने
क्यूँ मेरे अपने विदेश में बैठ जाते हैं
अपनी उखरती साँसों के समय साथ उनका चाहा मैंने, न जाने
क्यूँ वे काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं
उम्र भर सबको साथ लेकर चली मैं, न जाने
क्यूँ मेरी विदाई को वे गुमनामी में निपटाते हैं॥

ज्ञानेंद्र, अलीगढ