अख़बार की नौकरी क्या बताऊँ मेरे यार
ऑफिस के नाम से ही चढ़ जाता है बुखार
सुबह उठने के साथ ही शुरू हो जाता है डर
हर पन्ना पलटना, हर खबर पढ़ना
क्या लगा, कैसा छ्पा, क्या रह गया
या देख ही रहा था कि मेरा फ़ोन बज गया
कैसे हो भाई, उधर से आवाज़ आई
मै कुछ बोल पता इससे पहले उसने गलती बताई
वो फोटो कहाँ गई जिसे लगना था आज
संपादक हैं नाराज गिरने वाली है गाज
सुनकर उसकी बात मन हो गया बेचैन
आज फ़िर खो गया दिन भर का चैन
कहाँ की चाय अब कहाँ का नाश्ता
हाथ मुंह धुल पकड़ लिए ऑफिस का रास्ता
हर पल सता रहा हा नौकरी का डर
याद आ रही थी माँ याद आ रहा था घर
बड़ी मुश्किल आज उस फोटो ने डाला
अपने कंप्यूटर को मैंने शुरू से खंगाला
पेज पर ही थी कैसे नही लग पाई
माफीनामा लिखने में ही समझी अपनी भलाई
मामला निपटाया फ़िर लौटकर घर आया
दो बज चुके थे अबतक जब मुंह में गई चाय
कैसी है life कैसे कर रहे एन्जॉय।
Monday, February 16, 2009
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